रेत की तरह मुट्ठी से, ये वक़्त फिसलने लगा।
पूर्णिमा का चाँद भी, धीरे-धीरे पिघलने लगा।।
यह आया कैसा अँधेरा, सूरज भी अब ढलने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
ना रही चाह, ना ज़िद रह गयी कोई, जीतना भी अब खलने लगा।
डरता ना था तूफानों से, अब हवाओं से भी डरने लगा।।
रोशन था जो जीवन, अब अंधियारे से भरने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
ये मंज़िल नहीं आसान, पथ काटों से भरने लगा।
फूल थे जहाँ खिले, पतझड़ अब बिखरने लगा।।
मेरा साया भी मुझसे, दूरी बनाकर चलने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
-- तरुण पाठक
पूर्णिमा का चाँद भी, धीरे-धीरे पिघलने लगा।।
यह आया कैसा अँधेरा, सूरज भी अब ढलने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
ना रही चाह, ना ज़िद रह गयी कोई, जीतना भी अब खलने लगा।
डरता ना था तूफानों से, अब हवाओं से भी डरने लगा।।
रोशन था जो जीवन, अब अंधियारे से भरने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
ये मंज़िल नहीं आसान, पथ काटों से भरने लगा।
फूल थे जहाँ खिले, पतझड़ अब बिखरने लगा।।
मेरा साया भी मुझसे, दूरी बनाकर चलने लगा।
सपने टूटे तारों से, आसमाँ जैसे गिरने लगा।।
-- तरुण पाठक
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